Monday, December 20, 2010

इसका इलाज़ क्या है ?

यह बहुत अजीब है। आज जयपुर के एक महिला महाविद्यालय में अंग्रेजी की स्नातकोत्तर छात्राओं को नाट्यशास्त्र का रासध्याय पढ़ाने के लिए बुलाया गया था। कुछ आदत है कि अध्यापन के लिए मैं कभी मना नहीं करता.और फिर तीन - चार दिन का ही काम था इसलिए और आसानी से हाँ कर दिया. कक्षा में पहुंचा तो पता लगा कि किसी के भी पास अंग्रेजी में किया गया और पाठ्यक्रम में स्वीकृत अनुवाद नहीं था। महाविद्यालय ने शायद इसकी ज़रुरत ही महसूस नहीं कि थी या उनके यहाँ उपलब्ध नहीं था और उन्होंने इसके लिए कोई प्रबंध भी नहीं किया था। इसी तरह राजस्थान के केंद्रीय विश्वविद्यालय में हुआ। वहां तो सारी सामग्री भी भिजवा दी गयी थी फिर भी वह पढने वालों को समय रहते नहीं दी गयी थी। लिहाजा दोनों तरफ के छात्र एक ही स्थिति में थे। यह कहना भी यहाँ ज़रूरी है कि दोनों ही जगह पढने वालों का समूह अच्छा था लेकिन वे इस विषय कि कोई पृष्ठभूमि न होने के कारण समझ पाने में असमर्थ थे। नतीजा वही हुआ कि पहला दिन तो उन्हें विषय से परिचित कराने में ही निकल गया। इसमें छात्रों या छात्राओं कि गलती नहीं थी। उनकी गलती तब होती जब सामग्री होने के बाद भी वे पढ़कर न आये होते। कमोबेश यही हाल सब जगह है। हम पढने वालों पर यह आरोप आसानी से लगा देते हैं कि वे पढ़ना नहीं चाहते लेकिन अपनी ओर नहीं देखते। पुस्तकें उपलब्धता सुनिश्चित किये बिना पाठ्यक्रम में लगा दी जाती हैं। अगर कोई अनुवाद प्रस्तावित है तो उसका स्तर तथा उपलब्धता का विचार नहीं किया जाता। अपने विश्वविद्यालय के नाट्य विभाग में भी संस्कृत और पाश्चात्य नाटक पढ़ाते समय मैंने अनुभव किया कि दोनों ही भाषाओं में जो नाटक लगाए गए हैं उनके अनुवाद या तो ढंग के नहीं हैं और या फिर उपलब्ध नहीं हैं। अब यह अपेक्षा तो करना ज्यादती है कि वे प्रस्तावित सामग्री को उसकी मूल भाषा या अंग्रेजी अनुवाद के माध्यम से पढ़ें। ऐसी स्थिति में अध्यापक भी घास काटने को स्वतन्त्र हो जाता है। उसके लिए तो आसान है कि वह लेखक के, नाटक की कथा के बारे में पढाये और उसकी समीक्षा कर दे। एक तो वैसे ही पढ़ाने वाले कामचोरों की कमी नहीं है दूसरी तरफ जो पढ़ाना चाहता है उसके लिए सुविधा नहीं है। कब तक चलता रहेगा यह। मैं तो कोशिश कर लेता हूँ कि जो मेरे पास उपलब्ध है वह जीरोक्स करा कर छात्रों को दे सकूं लेकिन कितने लोग ऐसा करेंगे और क्यों करेंगे ? इस चक्कर में अनेक पुस्तकें मैं खो चुका हूँ और अभी पता नहीं कितनी मैं अन्वेषण कर तीसरी बार फिर खरीदूंगा। इसका हल क्या है ? क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा या इसका कोई अंत भी है । मेरे साथी मित्र कहते हैं कि अब इतना भी बावला होने कि ज़रुरत नहीं है। तो क्या मैं उन बच्चों को भूल जाऊं जो मुझसे कुछ अपेक्षा रखते हैं और जो पढ़ना चाहते हैं ? क्या यह कर पाना संभव है ?